सूत्रधार कौन ?
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बिना बात मन के तार
बज उठे थे
असमय कोई सूत्रधार
मधुर धुन छेड़ गया था
उसकी इतनी स्निग्ध तान
जीने लगा न चाहकर भी
जल उठी अचानक एक लौ
गुनगुनाना भूलकर वो
ढूँढता फिर रहा है
अंधेरे मे ।
रोशनी अब फैलने लगी है
मंथर गति से
साधना इतनी सुहानी
अब मिली क्यों
मुग्ध चितवन आज
स्वयं पर
एक नया बचपन
जी रहा हूँ ।
मन भावुक हो चला है
आंखे बरसात को आतुर
अचानक मौसम मे परिवर्तन
आत्म अंश का बोध
कितनी अनोखी सोच
कब मिला , कब अपना हुआ वह
सोचता हूँ
हर रोज
बिना किसी अंतराल के
आखिर वह सूत्रधार कौन ?
- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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