आज़ादी के मतवाले-शहीद भगत सिंह की मां विद्यावती कौर से जुड़े अनसुने किस्से
1 min read – 75 आज़ादी का अमृत महोत्सव-
बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार, समाज-सेवा, लोगों के आर्थिक स्वावलंबन, गुमनाम क्रांतिकारियों एवं स्वतंत्रता सेनानियों पर शोध एवं उनके सम्मान के लिए समर्पित मातृभूमि सेवा संस्था, आज देश के ज्ञात एवं अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों को उनके अवतरण, स्वर्गारोहण तथा बलिदान दिवस पर, उनके द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में दिए गए अद्भूत एवं अविस्मरणीय योगदान के सम्मान में नतमस्तक है।
-माता विद्यावती कौर जी-
तू ना रोना के तू है भगत सिंह की माँ,
मरकर भी तेरा लाल तेरा मरेगा नहीं,
घोड़ी चढ़के तो लाते है दुल्हन सभी,
हँस के हर कोई फाँसी चढ़ेगा नहीं।।
( प्रेम धवन जी )
मेरे राष्ट्रभक्त साथियों, मातृभूमि सेवा संस्था के प्रतिदिन के क्रांतिकारी लेख के माध्यम से हमें देश के स्वतंत्रता सेनानियों व क्रांतिकारियों को शब्दांजलि देने का शुभ अवसर प्राप्त होता है। आज मातृभूमि सेवा संस्था को आज़ादी के मतवाले शहीद-ए-आज़म भगत सिंह जी की माता विद्यावती कौर जी के *47वीं पुण्यतिथि* के अवसर पर इनके जीवन के त्याग एवं बलिदान को आपके समक्ष लाने एवं नतमस्तक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
छत्रपति शिवाजी महाराज जी की जननी (माँ), उनकी प्रथम गुरु व मार्गदर्शक राजमाता जीजाबाई ने जिस तरह अपने पुत्र में संस्कार बोए, उसी का सुंदर परिणाम रहा है, विशाल मराठा साम्राज्य। राष्ट्रभक्त साथियों, यही संस्कार लगभग 270 वर्ष बाद माता विद्यावती कौर जी ने अपनी संतानों में बोए, जिन्होंने मातृभूमि की आज़ादी के लिए संघर्ष किया एवं सर्वस्व तक न्योछावर किया। यह माता विद्यावती जी के ही पालन पोषण का परिणाम था कि बेटे कुलबीर सिंह, कुलतार सिंह 05 – 05 वर्ष जेल में रहें। बेटी अमर कौर भी ढाई वर्ष जेल में रही तथा पुत्र सरदार भगत सिंह जी ने तो मातृभूमि की आज़ादी हेतु सर्वस्व तक अर्पित किया। महान स्वतंत्रता सेनानी सरदार किशन सिंह जी की जीवनसाथी विद्यावती जी की 09 संताने थी, जो स्वभाव से एक धार्मिक एवं बहादुर स्त्री थी। विद्यावती जी का पूरा जीवन अनेक विडम्बनाओं और झंझावातों के बीच बीता। सरदार किशन सिंह से विवाह के बाद जब वे ससुराल आयीं, तो यहाँ का वातावरण देशभक्ति से परिपूर्ण था। माता विद्यावती जी के ससुर सरदार अर्जुन सिंह कट्टर आर्य-समाजी थे। अपने घर में नित्य यज्ञ करते थे। उन्ही से प्रेरणा लेकर माता विद्यावती जी ने आर्य समाज के समाज सुधार के कार्यों स्वयं को अर्पित किया। उनके देवर सरदार अजीत सिंह जी देश से बाहर रहकर स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे। स्वाधीनता प्राप्ति से कुछ समय पूर्व ही वे भारत लौटे; पर देश को विभाजित होते देख उनके मन को इतनी चोट लगी कि उन्होंने 15.08.1947 को साँस ऊपर खींचकर देह त्याग दी।
माता विद्यावती जी के समान ही उनकी देवरानी हरनाम कौर जी (अमर क्रन्तिकारी सरदार अजीत सिंह की पत्नी) सारा जीवन देश की आजादी के लिए विदेशों में भटक रहे पति की प्रतीक्षा में व्यतीत किया। जब अजीत सिंह जी भारी कष्ट उठा कर विदेश से लौटे तो भाव विह्वल होकर बोले ” सरदारनी मै तुझे सुख न दे सका हो सके तो मुझे माफ़ करना। उनके दूसरे देवर सरदार स्वर्ण सिंह भी जेल की यातनाएँ सहते हुए बलिदान हुए। उनके पति किशन सिंह जी का भी एक पैर घर में, तो दूसरा जेल और कचहरी में रहता था। विद्यावती जी के बड़े पुत्र जगत सिंह की मृत्यु मात्र 11 वर्ष की आयु में सन्निपात (तेज बुखार) से हुई। जेलयात्राओं और मुकदमेबाजी से खेती चौपट हो गई तथा घर की चौखटें तक बिक गई। इसी बीच घर में डाका भी पड़ गया। एक बार चोर उनके बैलों की जोड़ी ही चुरा ले गये, तो बाढ़ के पानी से गाँव का जर्जर मकान भी बह गया। ईष्यालु पड़ोसियों ने उनकी पकी फसल जला दी। सन् 1939-40 में सरदार किशन सिंह जी को लकवा मार गया। उन्हें खुद चार बार साँप ने काटा; पर उच्च मनोबल की धनी माता विद्यावती जी हर बार घरेलू उपचार से ठीक हो जाती। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जी की फाँसी की खबर सुन उन्होंने दिल पर पत्थर रख लिया, क्योंकि भगत सिंह ने उनसे एक बार कहा था कि तुम रोना नहीं, वरना लोग क्या कहेंगे कि भगत सिंह की माँ रो रही है।
सरदार भगत सिंह जी के जीवन पर महाकाव्य के रचयिता, महान स्वतंत्रता सेनानी व साहित्यकार श्रीकृष्ण सरल जी ने 09.03.1965 को इसके विमोचन के लिये माता विद्यावती जी को उज्जैन बुलाया, तो उनके स्वागत को सारा नगर उमड़ पड़ा। उन्हें खुले रथ में कार्यक्रम स्थल तक ले जाया गया। सड़क पर लोगों ने फूल बिछा दिये और छज्जों पर खड़े लोग भी उन पर पुष्पवर्षा करते रहे। पुस्तक के विमोचन के बाद श्रीकृष्ण जी ‘सरल’ ने अपने अँगूठे से माताजी के भाल पर रक्त तिलक किया। माताजी ने वही अँगूठा एक पुस्तक पर लगाकर उसे नीलाम कर दिया। उससे 3,331 रु. प्राप्त हुए। माताजी को सैकड़ों लोगों ने मालायें और राशि भेंट की। इस प्रकार प्राप्त 11,000 रु. माताजी ने दिल्ली में इलाज करा रहे भगत सिंह जी के महत्वपूर्ण क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त जी को भिजवा दिए। समारोह के बाद लोग उन मालाओं के फूल चुनकर अपने घर ले गए। जहाँ माताजी बैठी थीं, वहाँ की धूल लोगों ने सिर पर लगाई। सैकड़ों माताओं ने अपने बच्चों को माताजी के पैरों पर रखा। मेरे इस बात को अन्यथा न लें, किंतु विचार अवश्य करें, क्योंकि यह कड़वी सच्चाई है कि सन् 1947 के बाद गांधीवादी सत्याग्रहियों को अनेक शासकीय सुविधायें मिलीं; पर क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रहे। उनमें से कई गुमनामी में बहुत कष्ट का जीवन बिता रहे थे। माताजी उन सबको अपना पुत्र ही मानती थीं। वे उनकी खोज खबर लेकर उनसे मिलने जाती थीं तथा सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाली पेंशन की राशि चुपचाप वहाँ तकिये के नीचे रख देती थीं।
सरदार भगत सिंह जी को अपनी माता से अगाध प्रेम था। जब एक बार उनकी माता अत्यंत बीमार हुई तो वह भगत सिंह को देखने के लिए तड़पने लगी। पिता किशन सिंह ने भगत को बुलाने के लिए एक विज्ञापन निकाला ताकि उसे पढ़कर वह घर लौट आए । ऐसा ही हुआ, माँ ने भगत को गले लगा लिया और खूब बातें कर के अपना मन हल्का किया। माता भगत सिंह जी की शादी करना चाहती थी। भगत चुपचाप घर से निकल क्रांतिकारियों से जा मिले। माँ मन मसोस कर रह गई। माता विद्यावती जी जब अपने वीर पुत्र भगत सिंह से फाँसी लगने से पूर्व जेल में अंतिम भेंट करने गई तो ठहाकों के बीच भगत सिंह ने कहा “बेबे जी मेरी लाश लेने मत आना कुलवीर नूँ भेज देना कहीं तू रो पड़ी तो लोग कहेंगे की भगत सिंह की माँ रो रही है” इतना कह कर देश का यह दीवाना भगत सिंह पुनः जोर से हँसा। इस प्रकार एक सार्थक और सुदीर्घ जीवन जीकर माताजी ने दिल्ली के एक अस्पताल में 01.06.1975 को 96 वर्ष की उम्र में अंतिम साँस ली।
✍️ राकेश कुमार
(मातृभूमि सेवा संस्था 9891960477 से साभार)
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