मेरा शहरी होना
1 min readजब छूटा था घर
शहर आते वक़्त
तब बहुत उत्साहित था मन
कि एक डोंगी
पहुँच रही है
अपने मंजिल पर
दूसरे किनारे।
अब जब याद आता है छूटा हुआ घर
इस फ़्लैट में
तब बहुत उदास हो जाता है मन
कि एक डोंगी से
छूट गया उसका घाट
आकर दूसरे किनारे पर।
वैसे, जैसे दूर हो गया
पिता का साया
जीवन का राह दिखाकर
अकेला चलने के लिए
कि उतार दी गई पाल
छोड़ कर
मनमौजी हवा के भरोसे।
वैसे, जैसे उड़ गया
माँ का आँचल
और हो गया मैं छत्रहीन
धूप-वृष्टि-ओला सहने के लिए
रहकर एकदम मौन
चोट खाकर गूँगे बच्चे-सा।
छूटते गए रिश्ते
शहरी होने पर मेरे
छोड़ कर इस बीहड़ में
कदम-कदम पर
डगर बनाने के लिए,
जबसे छूट गया घर
शहर आते वक़्त।
जैसे दूर हो गया
पिता का साया
उड़ गया
माँ का आँचल
और नहीं बचा पाया मैं
शहरी होकर
संबंधों का इत्र
कि जब कभी चाहूँ
सुगन्धित अनुभव कर सकूँ
छिड़क कर जिसे अपने आस-पास।
■■
केशव मोहन पाण्डेय
समन्वयक-संचालक
सर्व भाषा ट्रस्ट
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