मुंबई, (नोएडा खबर डॉट कॉम)
मुंबई की चकाचौंध भरी दुनिया में, जहाँ सपने चमकते हैं और चुनौतियाँ काले बादलों की तरह मंडराती हैं, एक ऐसा सितारा चमका जिसने न केवल पर्दे पर, बल्कि लाखों दिलों में अपनी जगह बनाई। पंकज धीर – वह नाम जो ‘महाभारत’ के कर्ण के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया। उनकी जीवन यात्रा एक प्रेरणादायक महाकाव्य की तरह है:
पारिवारिक विरासत से शुरू होकर, संघर्षों से गुजरते हुए, शिखर पर पहुँचने और अंत में एक शांत विदाई तक।
आज, जब हम 15 अक्टूबर 2025 को उनकी विदाई को याद करते हैं, आइए उनकी कहानी को जीवंत करें।
जन्म और पारिवारिक जड़ें:
एक फिल्मी खानदान का वारिस 9 नवंबर 1956 को पंजाब के एक छोटे से शहर में जन्मे पंकज धीर का बचपन फिल्मों की जादुई दुनिया से घिरा हुआ था। उनके पिता, स्वर्गीय सी.एल. धीर, एक प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक और लेखक थे, जिन्होंने हिंदी सिनेमा को कई यादगार कहानियाँ दीं। घर में फिल्मी चर्चाओं की बहार रहती – स्क्रिप्ट्स पर बहसें, सेट्स की कहानियाँ और निर्देशन की बारीकियाँ।
पंकज के बड़े भाई सतलुज धीर भी प्रोड्यूसर बने, जबकि भाभी पूनम धीर भी उद्योग से जुड़ी रहीं। लेकिन पंकज का सपना निर्देशन का था। बचपन से ही वे पिता के सेट्स पर घूमते, कैमरा पकड़ते और सोचते कि एक दिन वे खुद कहानियाँ गढ़ेंगे।शिक्षा पूरी करने के बाद, पंकज ने अभिनय की औपचारिक ट्रेनिंग ली। वे एक प्रशिक्षित अभिनेता, निर्देशक और लेखक थे। 1970 के दशक के अंत तक वे मुंबई पहुँच चुके थे, जहाँ उन्होंने थिएटर से शुरुआत की। लेकिन जल्द ही सिनेमा ने उन्हें बुलाया। 1970 में ही उन्होंने निर्देशन में कदम रखा, जब ‘परवाना’ नामक फिल्म का निर्माण हुआ। यह उनकी यात्रा का पहला कदम था – एक ऐसा कदम जो उन्हें अभिनेता से निर्देशक तक ले जाएगा।
संघर्ष के साल: छोटे रोलों से पहचान तक
1980 का दशक पंकज के लिए संघर्ष का दौर था। वे छोटे-मोटे रोल निभाते रहे, लेकिन हर भूमिका में उनकी गहराई नजर आती। 1981 में ‘पूजा’ से फिल्मी सफर शुरू हुआ, जहाँ वे गिरीजा का किरदार निभाते दिखे। फिर आई ‘सूखा’ (1983) और ‘मेरा सुहाग’ (1987) जैसी फिल्में। मलयालम सिनेमा में भी उन्होंने कदम रखा – 1990 की ‘रंदम वरावू’। लेकिन ये रोल छोटे थे, और इंतजार लंबा। पंकज ने बताया था कि एक बार तो उन्होंने एक असिस्टेंट डायरेक्टर को थप्पड़ मार दिया था, क्योंकि वह उन्हें घंटों सेट पर इंतजार करवाते थे। यह उनकी आग का प्रमाण था – वे कभी झुके नहीं।उनकी शादी 19 अक्टूबर 1979 को अनीता धीर से हुई। अनीता ने उनके संघर्षों में साथ दिया, और जल्द ही उनका बेटा निकितिन धीर पैदा हुआ, जो बाद में खुद एक सफल अभिनेता बना। निकितिन की शादी क्रटिका सेंगर से हुई, जो टीवी की मशहूर अभिनेत्री हैं। परिवार उनके लिए ताकत का स्रोत बना रहा।
शिखर का क्षण: ‘महाभारत’ का कर्ण – एक अमर विरासत
l1988 में आया वह सुनहरा मोड़, जिसने पंकज धीर को घर-घर पहचान दिलाई। बी.आर. चोपड़ा के महाकाव्य ‘महाभारत’ में वे कर्ण बने। वह किरदार – दानवीर, योद्धा, लेकिन भाग्य का शिकार – पंकज की आँखों में उतर गया। उनकी गहरी आवाज, मजबूत कद-काठी और भावुक अभिनय ने दर्शकों को बांध लिया। कर्ण की त्रासदी को उन्होंने इतना जीवंत किया कि स्कूल की किताबों में उनकी तस्वीरें छपीं। कर्ण के मंदिरों में उनकी मूर्तियाँ पूजी गईं – कर्णल और बस्तर जैसे स्थानों में। यह भूमिका न केवल उनकी पहचान बनी, बल्कि टीवी को एक नया आयाम दिया।इसके बाद उनका करियर चमक उठा। टेलीविजन पर ‘कानून’ (1993) में वकील विजय सक्सेना, ‘चंद्रकांता’ (1994-96) में राजा शिवदत्त, ‘द ग्रेट मराठा’ (1994) में सदाशिवराव भाऊ, और ‘युग’ (1997) में अली खान जैसे रोल आए। ‘हरिश्चंद्र’ (1998) और ‘महाभारत कथा’ (1997-98) में फिर कर्ण बने। ‘ससुराल सिमर का’ (2011-12) में जम्नालाल द्विवेदी, ‘देवों के देव…महादेव’ (2012-14) में हिमावत, ‘बधो बहू’ (2016-18) में ठाकुर रघुवीर सिंह अहलावत, और हाल ही में ‘ध्रुव तारा – समय सदी से परे’ (2024) में गिरीराज जैसे किरदार निभाए।फिल्मों में भी वे विलेन या मजबूत सहायक बने रहे। ‘सौगंध’ (1991) में ठाकुर रणवीर सिंह, ‘सनम बेवफा’ (1991) में जुबर खान, ‘सड़क’ (1991) में इंस्पेक्टर इरानी, ‘मिस्टर बॉन्ड’ (1992) में ड्रैगन, ‘जागृति’ (1992) में कस्टम ऑफिसर, ‘परदेसी’ (1993) में हुसैन, ‘अशांत’ (1993) में अमित, ‘आशिक अवारा’ (1993) में रणवीर, ‘इकके पे इकका’ (1994) में रणधीर, ‘निशाना’ (1995) में पुलिस कमिश्नर, ‘कर्मों की सजा’ (1995) में अर्जुन, ‘बीटा’ (1996) में अविनाश पुरी, ‘सोल्जर’ (1998) में विजय मल्होत्रा, ‘बादशाह’ (1999) में चीफ सिक्योरिटी ऑफिसर खन्ना, ‘तुमको न भूल पाएंगे’ (2002) में शिवप्रताप सिंह, ‘अंदाज’ (2003) में प्रोफेसर रोहित मल्होत्रा, ‘जमीन’ (2003) में कैप्टन बशीर अली, ‘तारजान: द वंडर कार’ (2004) में राकेश कपूर, ‘सरहद पार’ (2006) में सूरज, ‘ओम’ (2003), ‘विष्णु सेना’ (2005), ‘गिप्पी’ (2013) में पापाजी, और ‘महाभारत और बर्बरीक’ (2013) में फिर कर्ण। 2014 में उन्होंने निर्देशन में वापसी की – ‘माय फादर गॉडफादर’।
नई ऊँचाइयाँ: स्टूडियो, एकेडमी और सामाजिक योगदान
करियर के मध्य में पंकज ने उद्योग को पीछे से मजबूत किया। 2006 में भाई सतलुज के साथ ‘विजेज स्टूडियोज’ नामक शूटिंग स्टूडियो खोला, जो जोगेश्वरी, मुंबई में आज भी फल-फूल रहा है। 2010 में ‘अभिनय एक्टिंग एकेडमी’ शुरू की, जिसका उद्घाटन अक्षय कुमार ने किया। यहाँ गुफी पेंटल जैसे दिग्गज फैकल्टी थे। वे सिर्फ अभिनेता नहीं, बल्कि मेंटर बने – युवा कलाकारों को मार्गदर्शन दिया। सिने एंड टीवी आर्टिस्ट्स एसोसिएशन (CINTAA) में सक्रिय रहे, जहाँ वे पूर्व चेयरमैन भी बने। उनके बेटे निकितिन ने कहा था, “पापा की अनुशासन और ईमानदारी मेरी जिंदगी की सीख है।”
चुनौतियाँ और अंतिम दिनों की लड़ाई: एक योद्धा की तरह
जीवन में चुनौतियाँ कम न थीं। कैंसर जैसी भयानक बीमारी ने उन्हें जकड़ लिया। कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में इलाज चल रहा था, जहाँ निमोनिया ने उन्हें वेंटिलेटर पर पहुँचा दिया। लेकिन पंकज ने हार नहीं मानी – ठीक वैसे ही जैसे कर्ण ने कुरीतियों का सामना किया। उनके बेटे निकितिन ने कुछ घंटे पहले ही एक क्रिप्टिक पोस्ट शेयर किया था – भगवान शिव की तस्वीर के साथ, जो जीवन के ‘छोड़ने’ पर था। शायद यह एक संकेत था।15 अक्टूबर 2025 को, 68 वर्ष की आयु में, पंकज धीर इस दुनिया से विदा हो गए। CINTAA ने आधिकारिक बयान जारी किया, जिसमें उनके योगदान को सलाम किया गया।
विरासत: कर्ण की तरह अमर
पंकज धीर सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे; वे एक कहानीकार थे। उनकी यात्रा हमें सिखाती है कि संघर्ष से शिखर तक का रास्ता लंबा होता है, लेकिन जुनून से असंभव कुछ नहीं। आज भी जब ‘महाभारत’ का कोई दृश्य दिखता है, कर्ण की आँखों में पंकज की चमक झलकती है। उनके परिवार – पत्नी अनीता, बेटा निकितिन, बहू क्रटिका – और अनगिनत प्रशंसक उन्हें हमेशा याद रखेंगे। नमस्कार, पंकज जी। आपकी यात्रा प्रेरणा बनी रहेगी।