विनोद शर्मा
लखनऊ,(नोएडा खबर डॉट कॉम)
सुबह के उजाले में कांशीराम स्मारक स्थल पर नीले झंडों का सैलाब उमड़ पड़ा। बसपा सुप्रीमो मायावती की चार साल बाद आ रही इस ‘मेगा रैली’ ने पूरे उत्तर प्रदेश को हिला दिया। कांशीराम की पुण्यतिथि पर आयोजित यह सभा सिर्फ श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि एक राजनीतिक पुनरागमन का ऐलान थी। पांच लाख से ज्यादा समर्थक, 5,000 बसें और 403 विधानसभा क्षेत्रों से पहुंची भीड़, यह सब बसपा की हताशा से उबरने की कोशिश का प्रतीक था। लेकिन क्या यह लहर 2027 के विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज को फिर सत्ता की कुर्सी पर बिठा पाएगी? या फिर यह सिर्फ एक आखिरी जद्दोजहद साबित होगी?
रैली की तैयारी ने ही सियासी हलकों में हड़कंप मचा दिया था। बसपा कार्यकर्ता गांव-गांव में ‘लखनऊ चलो’ का नारा बुलंद कर रहे थे। नारे जैसे ‘राशन नहीं, शासन चाहिए’ और ‘दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक की आवाज, बहुजन समाज का नया आगाज’ सोशल मीडिया से लेकर दीवारों तक गूंज रहे थे। यह रैली बसपा के लिए महज एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि अस्तित्व की लड़ाई थी। 2022 के विधानसभा चुनाव में एक सीट, 2024 के लोकसभा में शून्य—ये आंकड़े पार्टी को हाशिए पर धकेल चुके थे। मायावती, जो कभी 2007 में ‘सर्वजन हिताय’ के नारे पर पूर्ण बहुमत हासिल कर उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं, अब अपने पारंपरिक वोट बैंक दलितों, ओबीसी और मुसलमानों को फिर से जोड़ने की जद्दोजहद में थीं।
रैली स्थल पर माहौल जश्न का था, लेकिन सियासी तनाव साफ झलक रहा था। मायावती ने मंच से सपा-कांग्रेस पर तीखा प्रहार किया। “कांग्रेस ने आजादी के बाद जितने साल सत्ता में रही, दलितों-पिछड़ों का शोषण किया। इमरजेंसी में संविधान की धज्जियां उड़ा दीं। सपा की मानसिकता दलित-विरोधी है।” उन्होंने बीजेपी की भी आलोचना की, लेकिन स्मारक की आय से पार्कों के रखरखाव पर पारदर्शिता की तारीफ भी की, एक ऐसा तंज जो सपा को चुभा। “बीजेपी ने मेरी छवि खराब करने की कोशिश की, लेकिन बहुजन समाज जाग चुका है।”
सबसे बड़ा ऐलान था: “2027 का चुनाव बसपा अकेले लड़ेगी। गठबंधन हमारी ताकत कमजोर करते हैं।” यह बयान सपा के लिए झटका था, जो लोकसभा में बसपा के वोटों से फायदा उठा चुकी थी। चंदौली जैसी सीटों पर बसपा ने बीजेपी के वोट काटकर सपा को जिताया था। अब मायावती का अकेले लड़ने का फैसला बीजेपी को भी सताने लगा।
रैली का एक और रोचक पहलू था आकाश आनंद का लॉन्च। मायावती के भतीजे और पार्टी के युवा चेहरे को मंच पर पहली बार इतनी बड़ी सभा में उतारा गया। आकाश, जिन्हें 2023 में उत्तराधिकारी घोषित किया गया था लेकिन अनुशासनहीनता के आरोप में दो बार निष्कासित भी हुए, अब फिर से फोकस में हैं। मायावती ने उन्हें बिहार चुनावों की कमान सौंपी है। यह कदम दलित युवाओं को जोड़ने की रणनीति है, लेकिन आकाश की छवि पर सवाल अभी भी बाकी हैं। क्या वे कांशीराम की विरासत को संभाल पाएंगे?
सियासी विश्लेषकों का मानना है कि यह रैली बसपा के पुनरुद्धार का पहला कदम है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि, “मायावती सालों से राजनीतिक रूप से निष्क्रिय रहीं, जिससे कैडर हतोत्साहित हो गया। यह रैली उन्हें फिर से जोड़ने का प्रयास है।” लेकिन चुनौतियां कम नहीं। आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के चंद्रशेखर आजाद ने अपनी रैली टाल दी, ताकि टकराव न हो यह बसपा की ताकत का संकेत था। फिर भी, सपा-कांग्रेस गठबंधन ने दलित-ओबीसी वोटों पर कब्जा जमा लिया है। बीजेपी की हिंदुत्व लाइन ने भी बहुजन समाज को बांटा है।रैली के बाद लखनऊ की सड़कें नीले समर्थकों से गुलजार रहीं।
एक बुजुर्ग दलित कार्यकर्ता ने कहा, “बहनजी का संदेश साफ है—हम अकेले लड़ेंगे, लेकिन एकजुट रहेंगे।” लेकिन सवाल वही है: क्या यह नीली लहर 2027 में सत्ता की धारा मोड़ पाएगी? या फिर बसपा फिर हाशिए पर चली जाएगी? उत्तर प्रदेश की सियासत, जो हमेशा अप्रत्याशित मोड़ लेती है, अब मायावती के अगले कदम का इंतजार कर रही है। एक रैली ने जो बीज बोया है, उसका फल 2027 में पकेगा, फसल होगी या खाली खेत, समय बताएगा।