विनोद शर्मा
नई दिल्ली, 17 जुलाई।
हरियाणा की माटी में जन्मे पंडित लख्मीचंद (1903-1945) न केवल एक लोक गायक और कवि थे, बल्कि एक ऐसे सांस्कृतिक धरोहर थे, जिन्होंने हरियाणवी रागनी और सांग को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनकी मधुर आवाज, काव्यात्मक प्रतिभा और सांग की बारीकियों ने उन्हें “सूर्यकवि” और “हरियाणा का शेक्सपियर” जैसे सम्मानजनक उपनामों से नवाजा। उनकी रचनाओं में वेद, उपनिषद और गीता जैसे गूढ़ दार्शनिक ज्ञान को लोकभाषा में ढालकर जन-जन तक पहुंचाने का अनूठा सामर्थ्य था। यह कहानी उनके जीवन, संघर्ष और हरियाणवी लोक संस्कृति में उनके अमूल्य योगदान की पड़ताल करती है।
बचपन और प्रारंभिक जीवन:
माटी से जुड़ा एक सितारापंडित लख्मीचंद का जन्म 1903 में हरियाणा के सोनीपत जिले के जांटी कलां गांव में एक साधारण गौड़ ब्राह्मण किसान परिवार में हुआ। उनके परिवार में दो भाई और तीन बहनें थीं, और वे अपने पिता की दूसरी संतान थे। आर्थिक तंगी और शिक्षा संसाधनों की कमी के कारण लख्मीचंद औपचारिक स्कूल नहीं जा सके, लेकिन उनकी बुद्धि और रचनात्मकता ने उन्हें ज्ञान के मामले में विद्वानों के समकक्ष खड़ा किया। बचपन से ही उनकी रुचि गायन में थी। सात-आठ वर्ष की उम्र में ही उनकी सुरीली आवाज ने ग्रामीणों का दिल जीत लिया। खेतों में पशु चराते समय वे गीत और भजन गुनगुनाते, और गांव वाले उनकी मधुर आवाज सुनने के लिए उत्साहित रहते।
लख्मीचंद की प्रतिभा तब और निखरी, जब उनके गांव में बसौदी के पंडित मानसिंह भजन-रागनी का कार्यक्रम करने आए। अंधे होने के बावजूद मानसिंह की गायकी और सांग प्रस्तुति ने बालक लख्मी को मंत्रमुग्ध कर दिया। यहीं से उनके मन में सांग और रागनी की कला सीखने की ललक जागी।
सांग की साधना: गुरु से विद्या और चुनौतियां
लख्मीचंद ने सांग की बारीकियां सीखने के लिए कुण्डल गांव के सोहन लाल के बेड़े (सांग प्रस्तुति समूह) में शामिल होने का फैसला किया। पांच साल की कठिन साधना के बाद उन्होंने सांग के अभिनय, नृत्य और गायन में महारत हासिल कर ली। उनकी प्रस्तुतियों में नारी पात्रों का अभिनय, कमर की लचक, और फुर्तीली मुद्राएं दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देती थीं। उनकी गायकी और अभिनय का जादू ऐसा था कि लोग उन्हें देखते ही रह जाते।
हालांकि, उनके जीवन में चुनौतियां भी कम नहीं थीं। एक बार सोहन लाल द्वारा उनके गुरु पंडित मानसिंह के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने पर लख्मीचंद ने उनका बेड़ा छोड़ दिया। इस निर्णय ने कुछ लोगों को नाराज कर दिया, और बदले में उनकी भोजन में पारा मिला दिया गया, जिससे उनकी आवाज और स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा। लेकिन लख्मीचंद की साधना और जज्बा इतना प्रबल था कि उन्होंने अपनी आवाज को फिर से सुधारा और स्वयं का बेड़ा बनाकर सांग की दुनिया में नया इतिहास रचा।
लोक संस्कृति में योगदान: सूर्यकवि की सांग और रागनी
महज 18-19 वर्ष की उम्र में लख्मीचंद ने अपने गुरुभाई जैलाल नदीपुर माजरावाले के साथ मिलकर अपना बेड़ा बनाया और सांग मंचन शुरू किया। उनकी प्रस्तुतियों में “नल-दमयंती”, “सत्यवान-सावित्री”, और “हरिश्चंद्र” जैसे सांग शामिल थे, जो नैतिक मूल्यों, सामाजिक संदेशों और दार्शनिक गहराई से भरे थे। उनकी रचनाएं लोकभाषा में होने के कारण आम जनता से सीधा जुड़ाव बनाती थीं। उनकी रागनियों में वेदों और उपनिषदों का जटिल ज्ञान सरल शब्दों में ढलकर ग्रामीणों के बीच लोकप्रिय हुआ।लख्मीचंद की रचनाएं केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं थीं; वे समाज को शिक्षित करने और नैतिकता का संदेश देने का माध्यम थीं। उनकी कविताएं, जैसे “कर जोड़ खड़ी सूं प्रभु लाज राखियो मेरी” और “दुख मैं बीतैं जिन्दगी न्यूं दिन रात दुखिया की”, जीवन के दुख-सुख, आध्यात्मिकता और सामाजिक मूल्यों को उजागर करती थीं। उनकी प्रस्तुतियों में साज, आवाज और अंदाज का ऐसा समन्वय था कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
शिष्य और विरासत: सांग का नया आयाम
लख्मीचंद ने अपने बेड़े में एक से बढ़कर एक कलाकारों को शामिल किया और सांग कला को नई बुलंदियों तक पहुंचाया। उनके शिष्यों में पंडित मांगे राम, पंडित रामचंद्र, पंडित रत्तीराम, और फौजी मेहर सिंह जैसे नाम शामिल थे, जिन्होंने उनकी कला को आगे बढ़ाया। खासकर पंडित मांगे राम ने सांग को नया आयाम दिया और अपने गुरु की विरासत को जीवंत रखा।
लख्मीचंद की मृत्यु 1945 में मात्र 42 वर्ष की आयु में हो गई, लेकिन उनकी रचनाएं और सांग आज भी हरियाणा की लोक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं। उनके नाम पर साहित्य और कला के क्षेत्र में कई पुरस्कार दिए जाते हैं, जो उनकी अमर सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं। हाल ही में उनकी जिंदगी पर आधारित फिल्म “दादा लख्मी” भी रिलीज हुई, जिसने उनकी कहानी को नई पीढ़ी तक पहुंचाया।
लोक में भूमिका: हरियाणवी संस्कृति का सूरज
पंडित लख्मीचंद ने हरियाणवी लोक संस्कृति को न केवल संरक्षित किया, बल्कि उसे वैश्विक मंच पर पहचान दिलाने की दिशा में भी कदम उठाए। उनकी रागनियों और सांग ने हरियाणा के ग्रामीण जीवन, संस्कृति और आध्यात्मिकता को जीवंत किया। वे एक ऐसे सेतु थे, जो प्राचीन ज्ञान को लोकभाषा के माध्यम से आम जनता तक ले गए। उनकी प्रस्तुतियां सामाजिक एकता, नैतिकता और सांस्कृतिक गौरव को बढ़ावा देती थीं।आज भी हरियाणा के गांवों में उनकी रागनियां गूंजती हैं, और उनकी कहानियां नई पीढ़ी को प्रेरित करती हैं। पंडित लख्मीचंद सिर्फ एक लोक गायक नहीं थे; वे हरियाणवी लोक संस्कृति के सूर्य थे, जिनकी रोशनी आज भी बरकरार है।निष्कर्ष
पंडित लख्मीचंद का जीवन संघर्ष, साधना और सृजन का अनुपम उदाहरण है। गरीबी और संसाधनों की कमी के बावजूद उन्होंने अपनी प्रतिभा से हरियाणवी लोक कला को अमर बना दिया। उनकी रचनाएं और सांग आज भी हरियाणा की सांस्कृतिक धरोहर का गौरव हैं। उनकी जयंती पर हरियाणा के लोग उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं और उनकी विरासत को संजोते हैं। सूर्यकवि लख्मीचंद का नाम हरियाणा की माटी में हमेशा चमकता रहेगा।