विनोद शर्मा
नई दिल्ली, (नोएडा खबर डॉट कॉम)
बिहार की सियासी धरती पर आज एक बार फिर ‘लालटेन’ की रोशनी फीकी पड़ गई। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने विधानसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज की, जिसमें बीजेपी ने चुनाव लड़ने वाली अधिकतर सीटों पर कब्जा जमाया।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार अब और मजबूत होकर सत्ता संभालेगी, लेकिन इस ऐतिहासिक जीत के पीछे एक चेहरा उभरकर सामने आ रहा है—उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य। बीजेपी हाईकमान ने उन्हें बिहार चुनाव का सह-प्रभारी बनाकर जो भरोसा जताया था, वह अब इनाम की शक्ल लेने को तैयार है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मौर्य की भूमिका न सिर्फ ओबीसी वोटों को एकजुट करने वाली थी, बल्कि यह यूपी-बिहार के बीच ‘पिछड़े कार्ड’ की नई पटकथा भी लिख गई।
केशव मौर्य: ‘पिछड़े दूत’ की धुआंधार सैर
बिहार चुनाव की घोषणा होते ही बीजेपी ने सितंबर 2025 में केशव प्रसाद मौर्य को सह-प्रभारी नियुक्त किया। यह फैसला महज औपचारिक नहीं था, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। बिहार की राजनीति जातिगत समीकरणों पर टिकी है, जहां ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। मौर्य, खुद एक सवर्ण मौर्य (ओबीसी) समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, ने यूपी के अपने अनुभव को बिहार की मिट्टी में उतार दिया। पार्टी ने उन्हें पूर्वी चंपारण से लेकर मुजफ्फरपुर तक 78 विधानसभा सीटों की जिम्मेदारी सौंपी, जहां उन्होंने धुआंधार रैलियां कीं।अक्टूबर में दरभंगा और मुजफ्फरपुर की जनसभाओं में मौर्य ने ‘हिंदुत्व और विकास’ का कॉकटेल परोसा। उन्होंने कहा, “बिहार में न जंगलराज, न कट्टाराज, न गुंडाराज—सिर्फ मोदी-नीतीश की जोड़ी का राज!” उनकी भाषा सीधी और स्थानीय थी—ओबीसी की पीड़ा को छूती हुई।
विश्लेषकों के मुताबिक, मौर्य ने बिहार के कुर्मी, यादव और अन्य पिछड़े वर्गों को एकजुट करने में सफलता पाई, जो महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी थी। पहले चरण के 64.69% रिकॉर्ड मतदान में महिलाओं का झुकाव एनडीए की ओर दिखा, जो मौर्य की ‘संगठन विस्तार’ रणनीति का नतीजा माना जा रहा है।एक वरिष्ठ बीजेपी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “केशव जी ने यूपी मॉडल को बिहार में दोहराया। 2017 के यूपी चुनाव में उन्होंने ओबीसी को साधा था, वही फॉर्मूला यहां चला।” मौर्य की मेहनत रंग लाई—बीजेपी ने उन इलाकों में दोगुनी सीटें जीतीं जहां उन्होंने सीधे हस्तक्षेप किया।
हाईकमान का ‘इनाम’: राष्ट्रीय पटल पर चढ़ने का संकेत
चुनाव नतीजों के ठीक बाद दिल्ली के बीजेपी मुख्यालय में हाईकमान की बैठक में मौर्य का नाम प्रमुखता से उछला। अमित शाह ने केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में उनकी तारीफ की, जबकि जेपी नड्डा ने कहा, “केशव की मेहनत बिहार की ‘LED युग’ की नींव है।” सूत्रों के हवाले से खबर है कि हाईकमान उन्हें राष्ट्रीय महासचिव या संगठन महामंत्री जैसे पद पर प्रमोट करने की तैयारी कर रहा है। यह इनाम सिर्फ बिहार की जीत का नहीं, बल्कि यूपी में 2027 के विधानसभा चुनावों की तैयारी का भी हिस्सा है।राजनीतिक विश्लेषण में यह साफ है कि मौर्य की सफलता बीजेपी की ‘फेडरल स्ट्रक्चर’ को मजबूत करती है। जहां योगी आदित्यनाथ हिंदुत्व के प्रतीक हैं, वहीं मौर्य पिछड़ों के ब्रिज। 2022 में सिराथू से उनकी हार ने उन्हें ‘पीड़ित’ छवि दी, जो अब फायदेमंद साबित हो रही है। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर एक पोस्ट में लिखा गया, “बिहार के सरताज केशव—यूपी के 2027 में उनका चेहरा मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनेगा।” लेकिन सवाल यह है: क्या यह इनाम मौर्य को योगी के ‘सॉफ्ट’ विकल्प के रूप में स्थापित करेगा? हाईकमान का संदेश साफ—टीमवर्क से ही ‘मोदी मॉडल’ चलेगा।
राजनीतिक एंगल: जाति, विकास और भविष्य की पटकथा
इस जीत का राजनीतिक विश्लेषण जाति से शुरू होता है। महागठबंधन (आरजेडी-कांग्रेस) ने ‘फर्जी PDA’ (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) का नारा दिया, लेकिन मौर्य ने इसे तोड़ दिया। बिहार में 60% ओबीसी वोटरों का ध्रुवीकरण एनडीए की ओर हुआ, जो मौर्य की रणनीति का कमाल था। दूसरा एंगल विकास का—नीतीश की योजनाओं (जैसे जीविका और 10-10 हजार की सहायता) को मौर्य ने ‘मोदी गारंटी’ से जोड़ा, जिससे ग्रामीण महिलाओं का वोट पक्का हो गया।लेकिन चुनौतियां भी हैं। तेजस्वी यादव की युवा अपील और मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण महागठबंधन को कुछ सीटें दिला गया। विश्लेषक कहते हैं, “मौर्य की जीत 2026 के यूपी उपचुनावों और 2027 के विधानसभा में असर डालेगी।” अगर हाईकमान उन्हें बड़ा पद देता है, तो यह बीजेपी की ‘पिछड़े नेतृत्व’ वाली नई लाइन होगी—जो सवर्ण-दलित समीकरण को बैलेंस करेगी। विपक्ष के ‘तीन बैट्समैन’ (राहुल, अखिलेश, तेजस्वी) की असफलता मौर्य के बयानों में साफ झलकती है: “उनकी दुकान बंद हो गई!”
एक नई शुरुआत या सियासी जुगाड़?
बिहार की यह जीत केशव प्रसाद मौर्य के लिए ‘सेहरा’ है, लेकिन हाईकमान के इनाम से बड़ा सवाल यूपी का भविष्य है। क्या मौर्य 2027 में योगी के साथ या उनके विकल्प के रूप में उभरेंगे? राजनीति में कुछ स्थायी नहीं, लेकिन मौर्य ने साबित कर दिया—संगठन की ताकत जाति से ऊपर है। बिहार की जनता ने मोदी-नीतीश को चुना, लेकिन पटकथा लिखी केशव ने। अब इंतजार है, हाईकमान का ‘इनाम’ क्या रूप लेगा—एक पद, या पूरे सियासी परिदृश्य का नया चेहरा?
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